बुधवार, 13 जुलाई 2011

आप किसे धर्म मानते है ?

जब भी मेरे सामने ऐसा प्रश्न उठाता है की धर्म क्या है ?  तो मैं  प्रति प्रश्न करता हूँ की आप किसे धर्म मानते हो ???
धर्म के विषय में दो प्रकार की मान्यता प्रचलित है --
 

पहली मान्यता की स्थापना\उद्घाटना, प्रसार भारत से हुआ कि ----- सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं है. 
'धर्म' शब्द की उत्पत्ति 'धृ' धातु से हुयी है, जिसका अर्थ धारण और पोषण करना है. पदार्थ के धारक और पोषक तत्व को धर्म कहते है. इसका अभिप्राय यह है कि जिन तत्वों से पदार्थ बनता है वही तत्व उस पदार्थ का धर्म है. सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं हो सकता है ............. जैसे अग्नि का धर्म ताप और जलाना है, जल का धर्म शीतलता और नमी है, सूर्य का धर्म प्रकाश आदि है.
भारतीय संस्कृति का अवचेतन "मनु-स्मृति" के आश्रय से संचालित होता है, स्वयं उसमें भी मानव के धारणीय स्वाभाविक धर्म को इंगित करते हुए कहा गया है------

धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: 

धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं धर्म लक्षणम् 
इन दस मानव कर्तव्यों को धर्म घोषित करते हुए किसी भी -उपास्य, उपासना-पद्दति की चर्चा तक नहीं की गयी है. 
इसी तरह अन्यान्य भारतीय ग्रंथों में भी यही बात दोहराई गयी है. -----



धर्मो यो दयायुक्तः सर्वप्राणिहितप्रदः ।
स एवोत्तारेण शक्तो भवाम्भोधेः सुदुस्तरात् ॥
जो दयायुक्त और सब प्राणियों का हित करनेवाला हो वही धर्म है । वैसा धर्म ही सुदुस्तर भवसागर से पार ले जाने में शक्तिमान है

नोपकारात् परो धर्मो नापकारादधं परम्।
उपकार जैसा दूसरा कोई धर्म नहीं; अपकार जैसा दूसरा पाप नहीं


वैदिक साहित्य में सर्वत्र भूत-दया, प्राणिमात्र को स्वजन मानकर दया, सेवा, सात्विकता आदि गुणों से परिपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा दी गयी है. प्राणिमात्र में समभाव को धर्म बताया गया है. 
अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
 (यह् अपना है और यह पराया है ऐसी गणना छोटे दिल वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों का तो पृथ्वी ही परिवार है।)

वेद का ऋषि समस्त जीव-जगत की मंगल कामना कर्ता है ना कि सिर्फ वेद अनुगामी की.

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
            (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)

भारतीय लोक-मानस में प्रतिष्ठित रामचरित मानस में भी धर्म के लिए निम्न कथन आयें है----


धरमु न दूसर सत्य समाना , आगम निगम पुराण बखाना (२-९५-५)

सत्य के सामान कोई धर्म नहीं, सत्य धर्म है .

धर्म की दया सरिस हरिजाना (७-११२-१०)

दया के सामान कोई धर्म नहीं है .
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई"

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा (७-१२१-२२)


यहाँ भी किसी देवी-देवता या पूजा विधान कि गंध नहीं है. अर्थात सिद्ध है कि भारतीय संस्कृति में उपासना-विधान को धर्म के नाम से संबोधित नहीं किया गया है. धर्म तो सृष्ठी के प्रत्येक तत्त्व के साथ स्वाभाविक कर्म के रूप में जुडा हुआ है. धर्म उद्दात और असीम है.

भारत का धर्म अंध आस्था नहीं है. इसका विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही हुआ है. धर्म की शिक्षा का तात्पर्य यहां कर्मकाण्ड,पूजापाठ की विधि रटाना नहीं,बल्कि  धर्म का तात्पर्य स्वयं का तथा स्वयं के स्वार्थ का निश्रेयस और राष्ट्र का अभ्युदय है.

जबकी धर्म की दूसरी मान्यता कि स्थापना, प्रचलन शेष विश्व में क्रमशः हुआ है, और इसे धर्म के स्थान पर उपासना-पद्दति\पंथ\सम्प्रदाय\रिलिजन कहना ज्यादा उचित है.
 

यूँ तो पश्चिमी विचारको  ने रिलिजन को परिभाषित करने की कोशिश की है ,पर मैक्समूलर ने सभी दार्शनिको की परिभाषाओं को नकारते हुए 1878 में "रिलिजन की उत्पत्ति और विकास " विषय पे भाषण देते हुए रिलिजन की परिभाषा इस तरह दी है ---
"रिलिजन मस्तिष्क की एक मूल शक्ति है जो तर्क और अनुभूति के निरपेक्ष अन्नंत विभिन्न रूपों में अनुभव करने की योग्यता प्रदान करती है". यहाँ मैक्समूलर ने कल्पना की है की ईश्वर जैसी कोई सत्ता है जो असीम है,अनन्त है. इस से तो यह लगता है की मैक्समूलर यहाँ आस्तिकवाद की परिभाषा दे रहा है .
असल बात तो यह लगती है की विश्व में दो ही रिलिजन है, एक
आस्तिकवाद और दूसरा नास्तिकवाद . आस्तिक ईश्वर की सत्ता में यकीन रखता है और नास्तिकवाद ईश्वर को चाहे जिस नाम से पुकारो, उसके अस्तित्व को ही नकारता है .

इस तरह स्पष्ट है की आस्तिकता और धर्म का अर्थ पर्याप्त भिन्नता लिए हुए है.
धर्म का नाम लेकर जितने भी उत्पात होतें है वस्तुतः वे उपासना पद्दति की भिन्नत के आधार पर होतें है .................... जबकि धर्म नहीं हो तो लड़ाई-झगडे कि तो दूर रही सृष्ठी ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????

अब तो बताइए आप किसे धर्म मानते हैं ?

27 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे लिए तो धर्म वो है जिसमें बेसिक एलिमेंट हो मानवता दूसरी बात उससे जुडी लगभग हर बात में विज्ञान हो, वैसे पोस्ट में ये सब बातें आ गयी है , धर्म क्या कोई भी वाद या concept tool / हथियार बन जाता है / सकता है जिसे कुटिल लोग निर्बलों /या किसी वर्ग विशेष का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं .. अतिवादियों से हमेशा बचना चाहिए

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  2. नोट : विज्ञान में मनोविज्ञान भी आता है जिसे अक्सर इग्नोर किया जाता है
    ---------
    @और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????

    सोच रहा हूँ ......वैसे कोई "विज्ञान गल्प" लिखने या उसमें रुचि रखने वाले बताएं तो ठीक होगा :)

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  3. सांड लाल रंग को देखकर भड़कता है, आशंका है यहाँ भी कुछ लोग भड़क सकते हैं:)
    लेकिन ऊपर जो जो लाल रंग में लिखा है, धर्म की वो सभी परिभाषायें अपने को अच्छी लगीं क्योंकि उनमें सिर्फ़ अपने बारे में नहीं समस्त विश्व के कल्याण की बात की गई है।

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  4. वाह,बहुत बढ़िया analysis धर्म की की है आपने.

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  5. अपने कार्यों में व्यस्त रहने के कारण मै बहुत दिनों के बाद आपके पोस्ट पर आया बहुत अच्छा लगा आपका पोस्ट !
    धर्म तो उन मान्यताओं को आचरण में धारने का नाम है जो महर्षि मनु द्वारा बताये गए धर्म के दस लक्षणों के नाम से जाने जाते हैं -
    धृति क्षमा दमोस्तेय शौचं इन्द्रिय निग्रह धीर्विद्या सत्यम अक्रोधः दशकं धर्मः लक्षणं

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  6. मनुष्य को ईश्वर ने इतना बुद्धिमान तो बनाया है कि बिना तर्क के किसी बात को नहीं मानना चाहिए किन्तु फिर भी बहुत से व्यक्ति आसानी से गलत बातों को स्वीकार लेते हैं और कुछ मनुष्यों को आप कितना ही तर्क देलें वो फिर भी अपनी बात मनवाने के लिए कुतर्कों के सहारे हमेशा व्याकुल रहते है। सच में मानव कि बुद्धि बड़ी जटिल है और वो वोही मानना चाहती है जैसे उसको संस्कार मिले हैं चाहे सही या गलत और कुछ बुद्धिमान लोग ही उन गलत संस्कारों को ज्ञान से नाप-तौलते हैं अन्यथा बाकी तो सब भेड़-बकरियों कि तरह ही व्यवहार करते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति को उनके छल भरे कुतर्कों को समझना चाहिए। धर्मं मनुष्य को मनुष्यत्व के मूल भूत सिद्धांत जैसे की ब्रहमचर्य, ईश्वर ध्यान, समाधी सज्जनों से प्यार, न्याय, दुष्टों को दंड, सभी जीवधारियों पर दया भाव आदि अनेक जीवन के सिद्धांतों के साथ-२, विज्ञान, गणित और जगत रहस्यों को समझाता या सिखाता है।मैं एक बात उनलोगों से पूछना चाहता हूँ की उनको धर्म का अर्थ भी पता है या नही उनकी अल्प और संकीर्ण बुद्धि धर्म, मजहब और रिलिजन को पर्यावाची शब्द समझती है जबकि धर्म और बाकि सब में धरती आकाश का अंतर्भेद है |

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  7. जब देश में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ जाएँ तब मन को किस धर्म से मढूं? .
    'धृति' मुझे रास नहीं आता.....क्षमा करने का अब मन नहीं करता..... दुष्टों के दमन की इच्छा बलवती रहती है......
    सोचता हूँ कहीं से, (शाद पुलिस थाने से) शस्त्र (रिवोल्वर) की चोरी करके आस-पास के गुंडों को भूनना शुरू कर दूँ. समाज के काफी लोग (पुलिस समेत) असामाजिक तत्वों को भलीभाँति पहचानते हैं...
    देश के गद्दारों को पहचानकर मारने की योजना मन में बनाता रहता हूँ. ............ ये कैसा धर्म कहा जायेगा? ... क्या राष्ट्र धर्म तो नहीं??
    मैं ऐसे में धर्म के समस्त लक्षणों को अपने से दूर पाता हूँ ... मन हिंसक विचारों से भरा जा रहा है. शुचिता ख़त्म... जब योजना बनेगी तो असत्य भाषण जैसे अवगुणों की छूट ले ही लूँगा.
    मुझे समझ नहीं पड़ता कि देशधर्म किस रीति से निभाऊँ?

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  8. जी हाँ चाणक्य के अनुसार देश काल के अनुसार अलग अलग धर्म होते हैं
    आतंकवादिओं का संहार राष्ट्र धर्म ही है, समाज में हो रहे गलत बातों का विरोध भी हमारा धर्म है !

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  9. धर्म को अपने अनुसार परिभाषित कर उसे नकारने का कार्य नास्तिक बहुत दिनों से करते आये हैं।

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  10. मानव जीवन के गिने चुने दिनों में, मरते दम किसी के काम आ जाने से बड़ा धर्म कोई नहीं !
    शुभकामनायें आपको !

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  11. साधुवाद!! अमित जी, धर्म को उसके सार्थक शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने के लिए।
    धर्म आत्मा का ही धर्म होता है। और आत्मा शुद्ध रूप में सभी का भला ही चाहती है। यही आत्मा का गुण-धर्म है। यदि आवरण हट जाय तो।

    प्रतुल जी,

    संयम से काम लें, देखिए धर्म सर्वे भवन्तु सुखिनः रूप है। इसीलिए सौहार्दशाली है। यही शाश्वत धर्म का महान गुण है। हिंसक विचारधाराएं जो आतंकवाद और क्रूरता में रत है। यही चाहती है कि हम सौहार्दवान भी हिंसक बन जायं। धर्म का वैधव्य भोग रही यह विचारधाराएं चाहती है अन्य जिनका धर्म अभी जिंदा है, विधवा हो जाय। वे सत्य-धर्मीयों को भी आक्रोशित क्रूर देखने की इच्छुक है।

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  12. .

    यदि हर व्यक्ति अपने लिए निर्दिष्ट कर्तव्य को पहचाने और उसे पूरा करने के लिए तत्पर रहे तो वही धर्म है ! hamaara कर्तव्य परिवार के प्रति है , समाज के प्रति है और देश के प्रति है!

    कर्तव्यपरायणता ही धर्म है.

    .

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  13. गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर सभी मित्रों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ

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  14. समस्त प्रकृति के प्रति मानव को अपना कर्तव्य निष्पक्ष निरपेक्ष भाव से निभाते रहना ही धर्म है।

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  15. भारतीय सन्दर्भ में धर्म के व्यापक अर्थ का मत/पंथ/रिलीजन/मज़हब के सीमित अर्थ से अंतर स्पष्ट है - आभार!

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  16. प्रतुल जी
    बहुत सही कहा आपने ।
    किन्‍तु वस्‍तुत: धर्म की परिभाषा जैसा कि अमित जी ने पहले ही कहा है , जो धारण करने योग्‍य हो ।
    इसकी व्‍युत्‍पत्ति धार्यते इति धर्म है ।
    इसका सीधा सा आशय जो धारण करने किंवा अपनाने लायक हो वह धर्म है । यहाँ पर एक बात गौर करने की है यदि किसी हिंसक के साथ हम अच्‍छा व्‍यवहार कर रहे हैं तो वह भी अधर्म है क्‍यूँकि यह बात अपनाने लायक नहीं है ।
    श्री गीता जी कहती हैं कि हिंसक की हिंसा भी अहिंसा है ।
    इस प्रकार समसामयिक परिवेश में जो वस्‍तु समाज के एक उदार तथा बडे भाग द्वारा स्‍वीकृत हो वह धर्म है ।

    जैसे यहाँ जितने लोग हैं सभी अमित जी के लेख की अपनी तरह से व्‍याख्‍या करते हुए भी उनके विचारों से सहमत हैं , अर्थात् उनकी बात धर्मगत है ।

    स्‍वस्‍थ चर्चा के लिये धन्‍यवाद

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  17. धर्म का बहुत सुन्दर विश्लेषण...लेकिन आज धर्म का जो रूप दिखायी दे रहा है वह समाज में केवल बिखराव और अन्धविश्वास फैलाने के अलावा कुछ नहीं कर रहा...

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  18. इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही है धर्म हमारा

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  19. धर्मं विश्वास है, प्रेम है, भक्ति है, कर्त्तव्य है | धर्मं है स्वीकार, शांति, धन्यवाद और सच्चाई | इंसानियत भी धर्म है, प्रार्थना भी, सहजता भी धर्मं है, स्वयं का ज्ञान भी | वो हर चीज़ जो आत्मा की तड़प और मांग है - वही धर्मं है

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  20. जो इंसान ख़ामोश चीज़ों तक की ज बान जानता हो, वह इतना बहरा कैसे हो जाता है कि धर्म की उन हज़ारों ठीक बातों को वह कभी सुनता ही नहीं, जिनका चर्चा दुनिया के हरेक धर्म-मत के ग्रंथ में मिलता है लेकिन अपना सारा ज़ोर उन बातों पर लगा देता है जिन पर सारी दुनिया तो क्या ख़ुद उस धर्म-मत के मानने वाले भी एक मत नहीं हैं।
    शुभकामनायें !

    जानिए कि परम धर्म क्या है ?

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  21. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
    धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
    धर्म व उपासना है तो ईश्वर (शिव) है, ईश्वर (शिव) है तो धर्म व उपासना है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन
    लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  22. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
    धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
    धर्म व उपासना है तो ईश्वर (शिव) है, ईश्वर (शिव) है तो धर्म व उपासना है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  23. वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।

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  24. Aapane jo likha hai yahi satya hai. Bhgavanko bekari samazkar uske samane dhan fekanevale dharma aarth nahi samaz sakate.

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  25. नोपकारात् परो धर्मो नापकारादधं परम्। ये किस श्लोक की पंक्ति है तथा किस पुस्तक से लिया गया है | कृपया जानकारी शेयर करने का कष्ट करें | धन्यवाद

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जब आपके विचार जानने के लिए टिपण्णी बॉक्स रखा है, तो मैं कौन होता हूँ आपको रोकने और आपके लिखे को मिटाने वाला !!!!! ................ खूब जी भर कर पोस्टों से सहमती,असहमति टिपियायिये :)