शनिवार, 20 मार्च 2010

इस्लाम में जिहाद,इस्लाम के अरबी अनुकरण के कारण

अरबी सभ्यता जब धर्म से दूर होकर जंगलीपने की हद तक जा पहुंची तब श्रीमोहम्मदसाहबजी ने इस्लाम के माध्यम से अरबी सभ्यता को धर्मानुकुल बनाने की कोशिश की थी . पर श्रीमोहम्मदसाहबजी के स्वर्गगमन के बाद उनके अनुयायियों ने अपने देश की सभ्यता की प्रीत में इस्लाम को ही अपनी सभ्यता का दास बना लिया , अरबी सभ्यता लड़ाई झगडे को विशेष सम्मान देती है , इसी कारन इस्लाम के अनुयायी बन जाने पर कई बार टालें जाने पर भी इस्लाम में युद्ध का प्रवेश हो गया ,
श्रीमोहम्मदसाहबजी के बाद जब इस्लाम अरबी सभ्यता का अनुयायी हो गया ,तब जेहाद ही उन नए इस्लामवादियों द्वारा विशेस कर्त्तव्य मान लिया गया . इसी विश्वास के के चलते अरबो ने इरान और अफगानिस्थान को अपनी धुन में मुस्लिम बना लेने के बाद भारत पर भी धावा बोल दिया अब अरबो को भारत में शारीरिक जीत तो मिल गयी पर धार्मिक रूप में नए इस्लाम की पुराने इस्लाम से टक्कर हुयी . पुराने इस्लाम के वेदानुकुल सिधान्तो के सामने नए इस्लाम को हार मानने पड़ी . (हजारों सालो तक सैंकड़ों विजेताओं ने चाहे वह शक ,हूण,मंगोल ,हो या अरबी सबने भारतीय संस्कृति पर घातक से घातक वार किये पर इसके जड़ों को काटते-काटते इनकी तलवारे भोंती हो गयी . अगर भारतीय संस्कृति इतनी ही ख़राब है ,हिन्दूओं के अचार विचार इतने ही सड़ें हुयें है तो , अब तक हिन्दू जाती मर क्यों नहीं गयी. )
वह दीने हिजाजीका बेबाक बेडा
निशां जिसका अक्क्साए आलममें पहुंचा
मजाहम हुआ कोई खतरा जिसका
न अम्मआन में ठिटका न कुल्जममें झिझका
किये पै सिपर जिसने सातों समंदर
वह डूबा दहानेमें गंगा के आकर
अरबी सभ्यता भारत में आकर यहाँ के रंग में घुलने मिलने लगा था , इस्लाम पर भारतीय संस्कृति का इतना प्रबल प्रभाव पड़ा था की आम जनता के आचार विचार में कोई विशेष भेद नहीं रह गया था . यदि मुस्लिम विद्वान् उलेमा वर्ग भी बिना किसी भीड़ भाव के अरबी फ़ारसी की जगह भारतीय भाषा को इस्लामी विचार का साधन बना लिया जाता और सिर्फ अरबी संस्कृति को ही इस्लाम न मान लिया जाता तो कम से कम भारतीय इतिहास के माथे पर हिन्दू मुस्लिम मरकत का कलंक न लगा होता . क्योंकि वास्तव में दोनों एक ही तो हैं .
बस मोलवियों के इन्ही सिधान्तो और बर्तावों ने हिन्दू मुसलमानों को पराया बनाने का काम किया था ,जिसका भयानक परिणाम आज सबके सामने है . जबकि पवित्र कुरआन में किसीसे भी विरोध नहीं है .
"केवल अल्लहा ही पूजनीय है , और सब अच्छे नाम उसी के लिए है"
क्या राम उसका नाम नहीं हो सकता (सर्वर्त्र रमन्ति इति राम - जो सभी के लिए रमणीय है वह राम है)
लोग एकता की बात तो खूब करतें है.पर उस एकता में भी स्वधर्म छोड़ने की बातें है .एकता की बात करते है तो एक ही होइए ,उस एक होने में भी यह आग्रह क्यों करते है की अरबी संस्कृति से ही उस की इबादत की जा सकती है ,क्या फर्क पड़ता है जो तोहीद "अल्लहा एक है उसके सिवा और कोई नहीं है" , कहने से पूरी होती है
वही अद्वैतवाद "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति " कहने में भी पूरा होता है

1 टिप्पणी:

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